अनिल कपूर की एक फिल्म आयी थी जिसका नाम था "घरवाली बाहरवाली"। इस फिल्म में अनिल कपूर की एक घरवाली होती है और एक बाहरवाली होती है। राजनीति में नीतीश कुमार ने 'घरवाली' और 'बाहरवाली' के कॉन्सेप्ट का सफल प्रयोग किया है। इस प्रयोग के तहत 'घरवाली' यानी जिस पार्टी के साथ वे गठबंधन में होते हैं, उसे 'बाहरवाली' यानी विरोधी राजनीतिक दल के साथ चले जाने का खौफ दिखाकर दबाव में रखते हैं और आवश्यकता महसूस करने पर 'बाहरवाली' के साथ चले भी जाते है।
"घरवाली बाहरवाली" के कॉन्सेप्ट का सफल प्रयोग करने के लिए नीतीश कुमार एक गठबंधन या पार्टी के साथ रहते हुए बीच-बीच में दूसरे गठबंधन या पार्टी की तारीफ करते रहते हैं और उसके साथ सहयोग भी करते रहते हैं। एनडीए-1 में भी एक तरफ जहां उन्होंने भाजपा पर दबाव बनाने के लिए नरेंद्र मोदी के साथ अपने पोस्टर को मुद्दा बनाकर भोज रद्द कर दिया था, वहीं बीच-बीच में विरोधी पक्ष की मनमोहन सिंह सरकार की तारीफ भी कर दिया करते थे।
इसी तरह, जब वे महागठबंधन में आ गए, तो एक तरफ जहां वे तेजस्वी को "बच्चा" समान ट्रीट करते रहे, वहीं दूसरी तरफ विरोधी पक्ष के मोदी सरकार की नोटबंदी की तारीफ कर दी और राष्ट्रपति चुनाव में भी एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का साथ दे दिया।
इसलिए एक बार फिर से नीतीश कुमार महागठबंधन के साथ सरकार में आ गए है तो इसकी ठोस राजनीतिक वजह भी है, जिसे तात्कालिक घटनाओं और बयानों के साथ ही नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के दूरगामी हितों, या यूं कहें कि अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई के परिप्रेक्ष्य में समझना अधिक समीचीन होगा।
यह तो सबको पता है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए के साथ चुनाव लड़ते हुए भी नीतीश की पार्टी जदयू की हालत खस्ता थी। लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने कथित तौर पर भाजपा के सहयोग से जदयू की तमाम सीटों पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार खड़े किए और बड़ा आघात पहुंचाया।
सत्ता विरोधी हवा और चिराग के प्रयासों के कारण हालात ऐसे बन गए थे कि नीतीश कुमार को भावनात्मक कार्ड भी खेलना पड़ गया कि "यह मेरा आखिरी चुनाव है।" इसके बाद जो नतीजे आए, उसमें बिहार एनडीए में नीतीश कुमार बड़े भाई से छोटे भाई बन गए। भाजपा के 74 के मुकाबले जदयू को केवल 43 सीटें आईं।
इसके बावजूद यदि मन मसोसकर भाजपा नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए मजबूर हुई, तो केवल इसी कारण, क्योंकि उसे पता था कि ऐसा नहीं करने पर नीतीश कुमार को वापस महागठबंधन के साथ चले जाने में एक पल की भी देर न लगेगी। लेकिन जैसा कि स्वाभाविक है भाजपा इस स्थिति को 2025 में भी नहीं खींचना चाहेगी, भले ही उसने यह क्यों नहीं कहा हो कि जदयू के साथ उसका गठबंधन 2024 के साथ ही 2025 में भी जारी रहेगा।
नीतीश कुमार भी इस स्थिति को बखूबी समझ रहे होंगे। उन्हें 2025 में भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने का डर तो सता ही रहा है, वे यह भी समझ रहे हैं कि भाजपा से उन्हें जितना फायदा उठाना था, उठा लिया। यदि भाजपा 2025 में उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी, तो क्या बनाएगी? ज्यादा से ज्यादा केंद्र में मंत्री या फिर सिक्किम, अरुणाचल, नागालैंड जैसे छोटे राज्यों का राज्यपाल, क्योंकि भाजपा उन्हें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि बड़े राज्यों का राज्यपाल बनाकर भी किसी भी कीमत पर सिरदर्द मोल नहीं लेना चाहेगी।
इसलिए नीतीश कुमार अपने भविष्य को सुरक्षित करने की नई योजनाओं पर विचार किया और इसी के तहत, यह प्लान भी बनाया की बिहार में अभी महागठबंधन के साथ सरकार बनाकर विपक्षी खेमे को इस बात के लिए बारगेन किया जाए कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वे उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाएं।
नीतीश कुमार को जानने वाले तमाम लोग बताते हैं कि एक बार प्रधानमंत्री बनने की उनके भीतर तीव्र महत्वाकांक्षा है और उन्हें पता है कि 2024 वह आखिरी मौका है, जब वे अपने इस सपने को पूरा करने के लिए प्रयास कर सकते हैं। क्योंकि 2029 तक काफी देर हो जाएगी। एक तो उनकी उम्र तब 78 साल हो जाएगी और वे काफी अशक्त हो जाएंगे,
दूसरे यदि उन्होंने 2025 से 2029 के बीच अपनी राजनीतिक उपयोगिता खो दी, तो कोई भी गठबंधन उन्हें 2029 की अपनी स्कीम में शामिल नहीं करेगा। इसलिए 2024 से पहले का यह समय नीतीश कुमार के लिए "करो या मरो" का समय है।
हालांकि प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा में नीतीश कुमार अभी राजद-कांग्रेस के साथ सरकार तो बना सकते हैं, लेकिन इसमें भी उनकी स्थिति केवल 2024 के लोकसभा चुनाव तक ही अनुकूल रह सकती है, क्योंकि 2024 में यदि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, तो उसके बाद तेजस्वी यादव स्वयं मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे। तेजस्वी यादव भी एक युवा और महत्वाकांक्षी नेता हैं, जिनकी पार्टी का जनाधार भी पिछले दशकों में लगभग अक्षुण्ण है।
राजद और भाजपा - ये दोनों पार्टियां यदि जदयू से अधिक मजबूत जनाधार रखते हुए भी बिहार की सत्ता में अपने दम पर आने से दूर हैं, तो केवल और केवल जदयू के कारण। इसलिए इन दोनों ही पार्टियो को यदि अपने दम पर बिहार की सत्ता तक पहुंचना है, तो उन्हें नीतीश कुमार और जदयू को कमज़ोर करना ही होगा।
इसलिए नीतीश कुमार फिलहाल इस संभावित पालाबदल से जो भी हासिल कर लें, लेकिन उनकी दूरगामी चुनौतियां कम नहीं होने वालीं। इसलिए भी, क्योंकि वे केवल समीकरणों के सहारे ही सत्ता-सुख का भोग कर रहे हैं।
अब बड़ा सवाल यह है कि नीतीश कुमार अपनी पार्टी को भाजपा और राजद इन दोनों मजबूत पार्टियों के प्रहारों से कैसे बचाएंगे? यदि नीतीश कुमार भाजपा और राजद को इस्तेमाल करना जानते हैं तो ये दोनों पार्टियां भी उन्हें कमज़ोर करने के प्रयासों से बाज नहीं आने वाली, यह पत्थर पर लिखी लकीर है।
(यह लेख अंजनी कुमार के फेसबुक पेज पर उपलब्ध है, वे एक पॉलिटिकल विचारक हैं।) Image credit -google